Monday, March 23, 2009

आत्मविवेचना
ठहरा हुआ,स्थिर हूँ गतिहीन हूँ थका सा ,
शून्य को निहारता सोचता मैं ठगा सा,
क्या यह ही वो सपने हैं ,यह ही वो मंजिलें हैं
जहाँ पहुँचने को हम चले थे
कितने ताने-बाने बुने थे
कितने भांति के रंग चुने थे
सारे वे कैसे घुलमिल गए ,
पल में सारे मटमैले हो गए
ठोकर लगे कि सारे ख्वाब बिखर गए
कांच की बनी मंजिलें चटक गए
उस तस्वीर में फिर से रंग भर रहा हूँ
बिखरे टुकडो को समेट कर एक कर रहा हूँ,
शून्य से भी समेटने की चेष्टा करता हूँ
पर कुछ न पाकर भी फिर शून्य में निहारा करता हूँ,
और स्वयं को गतिशील करने का प्रयास करता हूँ

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